Monday, September 5, 2011

गुरु को समर्पित...

गुरु को समर्पित...

गुरु मानस पिता, शिष्य मानस पुत्र/पुत्री।
जहां शिष्य स्नेह का पात्र, और गुरु को श्रद्धा सम्मान। 

जहां होती भावों की भाषा,
और अंतर मौन-अभिव्यंजना।
गुरु-शिष्य में संवेदना ,
जोड़ देता कुछ यूँ... 
कि अंधकार को हर लेने का प्रकाश,
उसमें स्वतः फैलता है।

गुरु, वही है सच्चा 
जो सिर्फ पढ़ाता नहीं, बनाता है।

चरित्र आभूषण-सा गढ़कर, 
ज्ञान-ज्योति जलाकर,
उसकी क्षमताओं को निखारकर,
कर्त्तव्य का बोध कराकर, 
निर्जन वन में भी, जीने का विश्वास भर देता है।
जिसके डांट-डपट में है प्रेम सुवासित, 
और जिसका आशीर्वाद... 
ढृढ़ संक्लप भर देता है, निरंतर गतिमान रहने को।

मैं...
चाहती हूँ अपने गुरु से कुछ ऐसा ही ... 
जो मेरे भूलों का बोध कराकर,
क्षमा कर सके। 
ताकि मैं पश्चाताप की अग्नि में
न जलूं, न अपनी ऊर्जा क्षय करूं,
बल्कि, सुधार लाऊं स्वयं में।
हाँ, जो मुझे जागरूक बनाये,

मुझे दिशा दिखाये।
ताकि कल मै ‘इंसान’ बन पाऊं।