Sunday, July 31, 2011

वृक्ष

सावन से शुरू होती मेरी जिंदगी…
पतझर तक चलती जाती है ।
इस बीच कितने धूल-धक्के खाती हूँ ।
कितने रंग- रूप देखती हूँ,
वल्लरी से फूल बनती जाती हूँ,
मैं सयान होती जाती हूँ ।
फिर यौवन की लहर लगती है…
मैं मदमत हो उठती हूँ ।
भौंरे भिनभिनाते है,
मैं इठलाती हूँ…
हरीतिमा(मेहँदी), पियरी(हल्दी), लालिमा(कुमकुम)…
मेरे श्रृंगार का नव आलम…
अहा !
फूल और अब फल
मेरे आंगन किलकारियों की गूंज,
मैं बलैया लेती न थकती ।
परम सौभाग्य !
आनंदित…
कुछ पल यूँ ही बीत जाते है ।
……...
अपने जीवन के अंतिम क्षणों में,
मैं दुनिया को विदा कह जाती हूँ ।
मेरी शाखाएँ वहीं रहती है…
नए आवरण धारण करने के लिए ।
फिर एक नई शुरुआत के लिए ।

2 comments:

विभूति" said...

बहुत ही सुन्दर शब्दों का समायोजन....

संजय भास्‍कर said...

बहुत खूबसूरत अंदाज़ में पेश की गई है पोस्ट...... शुभकामनायें।