Thursday, July 21, 2011
ठहराव
मैं कुछ पल ठहरना चाहती हूँ
यहीं पर जहां हूँ
क्या है यहाँ , कौन सी शक्ति
कौन-सा आकर्षण ---
जो मुझे बांधे रखना चाहती है।
हां, मैं रूकना चाहती हूँ ।
ठहरकर इस पल को जीना चाहती हूँ ,
इसकी मधु-तीखी अनुभूतियों की गुंजों को
कानों में भर लेना चाहती हूँ।
क्यों, कहां, कैसे...
क्या यही जीवन की सार्थकता है?
क्या यही यथार्थ है?
क्या इसी में पूर्णता है?
ये कुछ पल---
मधुर पल
जीवंत,सजीले, वसंत की चादर ओढ$े।
परंतु,एक पल पतझड$ भी तो
अच्छा लगता है,
सनसनाती हुई हवा अच्छी लगती है
जब गालों को वह सर से छुकर निकल जाती है
वह स्फूरण मैं जी लेना चाहती हूँ।
मैं कुछ पल ठहरना चाहती हूँ।
आखिर अनुभूतियों के शिलाखंडो से ही
विचारों की श्रृंखला जुड$ती है।
फिर नवश्रृंगार का आलम होता है
प्रकृति श्रृंगार प्रसाधनों को जुटाती है,
फिर से हरा-भरा होने के लिए।
हांँ-- इसलिए, मैं ठहर जाना चाहती हूँ।
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3 comments:
आखिर अनुभूतियों के शिलाखंडो से ही
विचारों की श्रृंखला जुड$ती है।
फिर नवश्रृंगार का आलम होता है
प्रकृति श्रृंगार प्रसाधनों को जुटाती है
प्रकृति के इस रूप को ठहर कर ही निहारना चाहिए।
सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।
आपने ब्लॉग पर आकार जो प्रोत्साहन दिया है उसके लिए आभारी हूं
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