Monday, July 18, 2011

मूर्ति

पाषाण की मूरत हूँ मै,
चेतना की शुन्यता में।

झेल जाती सब बलाए
ग्रीष्म बारिश और सर्दी।
कभी मेरे रूप को ये फैला जाती ,
कभी अपने चित्रकारी का रूप देकर ,
ठण्ड के सिकुरन में संभाल लेती ।

किस बोध की मैं प्रतिमूर्ति ,
किस रूप का आकर लेती,
जा रही हूँ निर्वात शुन्य में ...
एक तरंग की झंकार
मेरे मस्तिस्क में झनझनाती,
अंतर के असंख्य अणु में
राग अपने छोड जाती।
इस बीहड$ दुनिया में जैसे...
गीत की झंकार बनकर,
मैं सदियों तक गुनगुनाती ,गान गाती ।

आज बूंदों ने मेरा श्रृंगार किया हैं,
तप्त धरती ने मुझे संसार दि है,
जाड$े की सिकुड$न ने मेरी लाज संभाली है।
तभी तो आज मैं हुँ इतनी सख्त कि
दीवार की टंकारो को संभाल लेती हुँ स्वयं में,
भविष्य का वरदान बनकर
एक पथिक की कल्पनाओं से निखरकर,
शोभा सुंदरी मंदिर की मूर्ति में---।

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