Sunday, July 31, 2011

वृक्ष

सावन से शुरू होती मेरी जिंदगी…
पतझर तक चलती जाती है ।
इस बीच कितने धूल-धक्के खाती हूँ ।
कितने रंग- रूप देखती हूँ,
वल्लरी से फूल बनती जाती हूँ,
मैं सयान होती जाती हूँ ।
फिर यौवन की लहर लगती है…
मैं मदमत हो उठती हूँ ।
भौंरे भिनभिनाते है,
मैं इठलाती हूँ…
हरीतिमा(मेहँदी), पियरी(हल्दी), लालिमा(कुमकुम)…
मेरे श्रृंगार का नव आलम…
अहा !
फूल और अब फल
मेरे आंगन किलकारियों की गूंज,
मैं बलैया लेती न थकती ।
परम सौभाग्य !
आनंदित…
कुछ पल यूँ ही बीत जाते है ।
……...
अपने जीवन के अंतिम क्षणों में,
मैं दुनिया को विदा कह जाती हूँ ।
मेरी शाखाएँ वहीं रहती है…
नए आवरण धारण करने के लिए ।
फिर एक नई शुरुआत के लिए ।

Thursday, July 28, 2011

बाल विवाह ?????

कल एक युवक हमारे घर काम करने आया, यही कोई 17-18 वर्ष का रहा होगा पर इसकी कहानी जानकर मुझे आश्चर्य हुआ इसकी शादी हो चुकी है और एक साल की एक बेटी भी है। हैरत तो यह थी की जो खुद बच्चा है उसका भी एक बच्चा!
क्या अभी भी लोग इतने पीछेरे हुए है। बाल विवाह जैसा अपराध क्या अभी भी मौजूद है। जो बच्चे विवाह का मतलब भी नहीं जानते उन्हें गुड्डे -गुड्डियो की तरह समझकर बयाह देना क्या न्याय है?

Thursday, July 21, 2011

ठहराव



मैं कुछ पल ठहरना चाहती हूँ
यहीं पर जहां हूँ
क्या है यहाँ , कौन सी शक्ति
कौन-सा आकर्षण ---
जो मुझे बांधे रखना चाहती है।
हां, मैं रूकना चाहती हूँ ।

ठहरकर इस पल को जीना चाहती हूँ ,
इसकी मधु-तीखी अनुभूतियों की गुंजों को
कानों में भर लेना चाहती हूँ।
क्यों, कहां, कैसे...
क्या यही जीवन की सार्थकता है?
क्या यही यथार्थ है?
क्या इसी में पूर्णता है?

ये कुछ पल---
मधुर पल
जीवंत,सजीले, वसंत की चादर ओढ$े।

परंतु,एक पल पतझड$ भी तो
अच्छा लगता है,
सनसनाती हुई हवा अच्छी लगती है
जब गालों को वह सर से छुकर निकल जाती है
वह स्फूरण मैं जी लेना चाहती हूँ।

मैं कुछ पल ठहरना चाहती हूँ।
आखिर अनुभूतियों के शिलाखंडो से ही
विचारों की श्रृंखला जुड$ती है।
फिर नवश्रृंगार का आलम होता है
प्रकृति श्रृंगार प्रसाधनों को जुटाती है,
फिर से हरा-भरा होने के लिए।

हांँ-- इसलिए, मैं ठहर जाना चाहती हूँ।

Monday, July 18, 2011

मूर्ति

पाषाण की मूरत हूँ मै,
चेतना की शुन्यता में।

झेल जाती सब बलाए
ग्रीष्म बारिश और सर्दी।
कभी मेरे रूप को ये फैला जाती ,
कभी अपने चित्रकारी का रूप देकर ,
ठण्ड के सिकुरन में संभाल लेती ।

किस बोध की मैं प्रतिमूर्ति ,
किस रूप का आकर लेती,
जा रही हूँ निर्वात शुन्य में ...
एक तरंग की झंकार
मेरे मस्तिस्क में झनझनाती,
अंतर के असंख्य अणु में
राग अपने छोड जाती।
इस बीहड$ दुनिया में जैसे...
गीत की झंकार बनकर,
मैं सदियों तक गुनगुनाती ,गान गाती ।

आज बूंदों ने मेरा श्रृंगार किया हैं,
तप्त धरती ने मुझे संसार दि है,
जाड$े की सिकुड$न ने मेरी लाज संभाली है।
तभी तो आज मैं हुँ इतनी सख्त कि
दीवार की टंकारो को संभाल लेती हुँ स्वयं में,
भविष्य का वरदान बनकर
एक पथिक की कल्पनाओं से निखरकर,
शोभा सुंदरी मंदिर की मूर्ति में---।